जब अक्षत एक साल का था, तो खेलते-खेलते उसे बिजली का झटका लग गया। उसके बाद लगातार बुखार आने लगे। हमने कई डॉक्टरों को दिखाया, और तब पहली बार किसी ने कहा कि “सिकल सेल एनीमिया” की जांच कराइए। रिपोर्ट ने हमारी ज़िंदगी बदल दी—अक्षत सिकल सेल पॉजिटिव निकला। उसका हीमोग्लोबिन केवल 4 mg था।
अगले दो साल किसी डरावने सपने से कम नहीं थे। अक्षत बहुत छोटा था, बता नहीं पाता कि उसे क्या हो रहा है। लेकिन हम समझते थे—उसकी तकलीफें असहनीय थीं। कभी छाती में, कभी पीठ में, तो कभी पूरे शरीर में ऐसा दर्द होता था जिसे सहना किसी बड़े के लिए भी मुश्किल होता। हर मौसम बदलने पर जैसे एक नई मुसीबत शुरू हो जाती थी—ना ज्यादा ठंड सह पाता था, ना ज्यादा गर्मी। हर बार उसे बुखार, दर्द और कमज़ोरी घेर लेते थे ।
हमने जगह जगह उसका इलाज़ करवाया -- रायपुर में , नागपुर में पर थोड़ा आराम मिलने के बाद समस्याएं वापस आ जाती थी। हर साल कम से कम एक-दो बार अस्पताल में भर्ती होना तय था। किसी रिश्तेदार की सलाह पर हमने आयुर्वेदिक उपाय भी आजमाया, लेकिन वो हमारे लिए गलत साबित हुआ—अक्षत की हालत और बिगड़ गई।
2021 में हमें पहली बार डॉ. गौरव खरया से मिले थे । उन्होंने पहली ही मुलाकात में कहा कि “बोन मैरो ट्रांसप्लांट” पर विचार करना चाहिए। उस वक्त हम डरे हुए थे और फैसला नहीं ले पाए। लेकिन एक साल बाद, एक रात उसकी हालत बहुत बिगड़ गई। उसे तुरंत बिलासपुर ले जाना पड़ा, फिर वहां से अपोलो हॉस्पिटल शिफ्ट किया गया। वहां उसने 15 दिन अस्पताल में बिताए—हर पल डर था कि अब क्या होगा।
उस घटना ने हमारी सोच बदल दी। हमने फैसला किया कि अब हम देर नहीं करेंगे। दिल्ली गए। अक्षत की बहन, जो रूस में मेडिसिन पढ़ रही थी, कोविड के चलते भारत लौट आई। उसके टेस्ट हुए और पता चला कि वह अक्षत की परफेक्ट मैच है।
इलाज का खर्च लगभग 23 लाख रुपये बताया गया। हमें छत्तीसगढ़ सरकार से 18 लाख रुपये की सहायता मिली, प्रधानमंत्री राहत कोष से 3 लाख और बाकी दोस्तों, सहकर्मियों और शुभचिंतकों ने मिलकर पूरा किया।
इस दौरान एक और चीज़ ने बहुत हिम्मत दी—एक सपोर्ट ग्रुप से जुड़ना, जिसमें ऐसे माता-पिता थे जिन्होंने अपने बच्चों का बोन मैरो ट्रांसप्लांट करवाया था। उनकी कहानियाँ, उनके अनुभव, और उनका भरोसा है।
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