blog-post-image

हमारी बेटी के दो जन्मदिन, एक डॉक्टर का दिया अनमोल उपहार

Posted on 2025-03-12 By : अमित माहतो

जब मेरी बेटी दिक्षिता केवल छह महीने की थी, तब हमने पहली बार सुना कि उसे थैलेसीमिया है। वह बहुत ज़्यादा पीली दिखती थी और हर 15 दिन में उसे रक्त चढ़ाने की ज़रूरत पड़ती थी। डॉक्टरों ने जब कहा कि यह जीवनभर चलता रहेगा, तो हमारी दुनिया मानो ठहर गई।

हर बार जब उसे ब्लड ट्रांसफ्यूजन के लिए ले जाते, तो वह सुई चुभने के डर से जोर-जोर से रोती। एक पिता के लिए इससे दर्दनाक कुछ नहीं हो सकता कि उसकी बच्ची तकलीफ में हो और वह कुछ भी न कर सके। हमें यह नहीं पता था कि भविष्य क्या लेकर आएगा, लेकिन हमने कभी भी अपनी बेटी को खुलकर जीने से नहीं रोका। हमने उसे खेलने, नाचने और अपने बड़े भाई से शरारती झगड़े करने से कभी नहीं रोका। हम बस यही चाहते थे कि वह एक सामान्य जीवन जिए, लेकिन यह उसकी बीमारी की सच्चाई से कोसों दूर था।


इसी बीच, हमें किसी ने बोन मैरो ट्रांसप्लांट के बारे में बताया। हमें पता चला कि वेल्लोर में इसका इलाज संभव है। दिल में उम्मीद लेकर हम वहाँ पहुँचे, लेकिन हमारी खुशियाँ तब बिखर गईं जब डॉक्टरों ने कहा कि 100% मैच न मिलने के कारण वे ट्रांसप्लांट नहीं कर सकते।

हम टूट चुके थे। उम्मीद और निराशा के बीच झूलते हुए, हम सोच रहे थे कि अब क्या किया जाए। हमें ऐसा लग रहा था मानो हमारे पास कोई रास्ता ही नहीं बचा।


फिर एक दिन हमने एक सेमिनार में डॉ. गौरव खरया को सुना। उन्होंने बताया कि 50% मैच वाले ट्रांसप्लांट में भी अच्छे परिणाम मिल सकते हैं। हमें यह सुनकर उम्मीद की एक नई किरण दिखाई दी। यह ट्रांसप्लांट माता-पिता या भाई-बहन में से किसी के बोन मैरो दान (डोनेशन) से किया जा सकता था। हम दिक्षिता को दिल्ली लेकर आए और पूरा परिवार उसके साथ आया, क्योंकि यह सफर अकेले तय करना मुमकिन नहीं था।

हालाँकि, यह निर्णय आसान नहीं था। ट्रांसप्लांट एक जोखिम भरा कदम था, लेकिन हमें लगा कि यह हमारी बेटी को एक सामान्य जीवन देने का इकलौता रास्ता है। हमने इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल का रुख किया और डॉक्टरों से बात की। उन्होंने हमें समझाया कि यह प्रक्रिया लंबी और कठिन होगी, लेकिन अगर सब कुछ ठीक रहा, तो हमारी बेटी पूरी तरह स्वस्थ हो सकती है।


इलाज की लागत हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती थी। इतनी बड़ी रकम हम एक साथ नहीं जुटा सकते थे। लेकिन हम रुके नहीं। हमने अपनी बचत निकाली, रिश्तेदारों से मदद मांगी, सामाजिक संगठनों से संपर्क किया और एक साल के संघर्ष के बाद हमने इलाज के लिए जरूरी रकम इकट्ठी कर ली। यह आसान नहीं था, लेकिन अपनी बेटी के लिए हम कुछ भी करने को तैयार थे।

ट्रांसप्लांट का सफर बेहद कठिन था। कई महीनों तक हमें अपनी बेटी को बाहरी संक्रमणों से बचाने के लिए विशेष सावधानियाँ बरतनी पड़ीं। उसका इम्यून सिस्टम कमजोर था और छोटी सी लापरवाही भी बड़ी मुसीबत बन सकती थी। हर दिन एक परीक्षा की तरह था, लेकिन हम डटे रहे। हमें अपनी बेटी की ज़िंदगी बचानी थी।

आज इस कठिन सफर को दो साल हो चुके हैं। हमारी बेटी अब बिल्कुल सामान्य जीवन जी रही है। वह दौड़ती है, खेलती है, कराटे सीखती है और नाचती भी है। वह अब किसी और बच्चे से अलग नहीं है।


हम हर साल दो जन्मदिन मनाते हैं। एक 25 अप्रैल को, जब वह इस दुनिया में आई थी, और दूसरा 21 मार्च को, जिस दिन उसका बोन मैरो ट्रांसप्लांट हुआ था। यह दिन हमारे लिए किसी उत्सव से कम नहीं होता, क्योंकि इस दिन हमारी बेटी को नया जीवन मिला था। यह हमारे डॉक्टर का दिया हुआ सबसे बड़ा तोहफा है।

आज जब मैं अपनी बेटी को हंसते और खेलते हुए देखता हूँ, तो आँखों में आँसू आ जाते हैं - खुशी के आँसू। हमने अपने जीवन के सबसे कठिन दौर को पार किया और अब हम गर्व से कह सकते हैं कि यह सब कुछ इसके लायक था।


अगर आप भी किसी ऐसे परिवार को जानते हैं जो थैलेसीमिया से जूझ रहा है, तो उन्हें हौसला दें। आज चिकित्सा विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है कि 50% मैच ट्रांसप्लांट भी सफलता दिला सकता है। सही जानकारी और हिम्मत से नामुमकिन भी मुमकिन हो सकता है।

हमारी बेटी की जिंदगी अब हमारी जीत की कहानी है – प्यार, धैर्य और उम्मीद की जीत।

"ब्लॉग में साझा की गई जानकारी लेखक की व्यक्तिगत पसंद है।"